सफल होने के लिए असफलता से बड़ा और कोई सबक नहीं

जनवरी से लेकर मार्च के तीन महीने भारत में परीक्षाओं की गहमागहमी से भरे होते हैं। परीक्षा परिणामों को लेकर छात्र, शिक्षक और माता-पिता सभी परेशान और चिंतित रहते हैं। परीक्षाओं के संभावित परिणामों के बारे में परीक्षार्थी का तनाव में रहना विद्यार्थी जीवन की एक सामान्य घटना है। तनाव से उत्पन्न अवसाद एवं उसके बाद की आत्महत्याओं की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हमारे लिए और भी गंभीर चिंता का कारण बन जाती हैं।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘परीक्षा पर चर्चा’ के माध्यम से छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों से बात करने की ऐतिहासिक रवायत परीक्षा के तनाव की गंभीरता और उससे संबंधित चिंता को दर्शाती है। सीबीएसइ और अन्य राज्यों के परीक्षा बोर्ड द्वारा परीक्षाओं के पूर्व परीक्षार्थियों की काउंसलिंग की व्यवस्था करने की जिम्मदारियों का भाव परीक्षा के तनाव के विषय को हमारे जीवन में आम समस्याओं के रूप में परिणत कर देता है।


दुनिया भर के मनोविश्लेषक अपने-अपने ज्ञान तथा अनुभव के आधार पर विद्यार्थियों को परीक्षा के तनावों का शमन करने के लिए रास्ते बताते हैं। बेचारे माता-पिता की मजबूरियां उस दर्द की तरह होती हैं जिनका वे न तो जिक्र कर पाते हैं और ना ही उनके पास समाधान का कोई वैज्ञानिक एवं विश्वस्त उपाय होता है। शिक्षकों की अपनी विवशता होती है। वे अपने छात्रों की परीक्षा और उसके बेहतर परिणाम के लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं। कुल मिलाकर परीक्षाओं से उत्पन्न तनाव की स्थिति भय, भ्रम एवं उहापोह की होती है। आज जबकि हम एक वैश्विक माहौल में रह रहे हैं जहां परीक्षा, करियर और जॉब्स से संबंधित दुनिया भर की सारी सुविधाएं और जानकारियां तर्जनी भर के पेन ड्राइव में मयस्सर हैं तो आत्मचिंतन का एक प्रश्न दिमाग में कौंध उठता है कि आखिर आइटी की अद्भुत क्रांति के दौर के आज की टेक्नो-सेवी पीढ़ी में परीक्षा तनाव के लिए मुख्य रूप से कौन जिम्मेदार है- शिक्षा व्यवस्था, शिक्षक या कोई और?


अपने व्यक्तिगत जीवन में 25 वर्षो से भी अधिक के शिक्षण अनुभव का जब आज मैं किसी बॉइस्कोप की तरह पीछे की तरफ लेकर गहन अध्ययन करता हूं तो एग्जाम स्ट्रेस से संबंधित कई भ्रम किसी आईने की तरह साफ हो जाते हैं और एक प्रश्न मन को व्यथित कर देता है कि क्या जो छात्र एग्जाम स्ट्रेस की बात करते हैं वे सच में अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए सौ फीसद समर्पण से प्रयास करते हैं? क्या वे साल भर गंभीरता से पढ़ाई करते हैं? क्या वे अपने मन को एकाग्र कर धैर्य से अपने सिलेबस का मनन और अध्ययन करते हैं?


स्वाध्याय के लिए टाइम-टेबल के अभाव के साथ खुद को प्रतियोगिता के लायक बनाने के लिए कोशिश करने की दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी ने परिस्थितियों को और भी बदतर बना दिया है। तिस पर सहसा परीक्षा के लिए तेजी से भागते हुए समय और बचे हुए पाठ्यक्रमों को पूरा करने की अनिवार्यता परेशानी को और भी गंभीर बना देता है।


मनोविश्लेषकों का मानना है कि थोड़ी मात्र में परीक्षा का तनाव परीक्षार्थियों के लिए उत्प्रेरक का कार्य करती है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि यह थोड़ी-सी मात्र कितनी थोड़ी-सी है? सच पूछें तो जब एक छात्र अपनी परीक्षा के लिए निर्धारित सिलेबस को नियमित स्व-अध्ययन के द्वारा तैयार करता है, तो एग्जाम स्ट्रेस एक प्रेरक के रूप में साबित होता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में टास्क को आसानी से मैनेज किया जा सकता है।


किंतु जब छात्र नियमित रूप से पढ़ाई नहीं करते और उन्हें यह पता नहीं होता है कि उनका लक्ष्य क्या है, उसके लक्ष्य की दिशा क्या है और उसके लिए कितनी मेहनत की दरकार है तो फिर ऐसी स्थिति में समस्या लाइलाज हो जाती है। मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन से यह अब साबित हो चुका है कि परीक्षा के तनाव की समस्या सबसे अधिक मन से जुड़ी होती है, इसके तार हमारी सोच से जुड़े होते हैं और सबसे अधिक हमारी लाइफ-स्टाइल से जुड़ी होती है। ऐसी स्थिति में मन को नियंत्रित करके जब परीक्षा के लिए लक्ष्य पूर्ति की दिशा में कठिन मेहनत की जाती है तो फिर तनाव असरहीन हो जाता है।


इस सच्चाई से हम इन्कार नहीं कर सकते कि जीवन में सफल होने के लिए असफलताओं से बड़ा कोई सबक नहीं होता है। बस जरूरत बिना निराश हुए धैर्य के साथ जीवन के पराजय से अनमोल मोतियों को चुनने की है। यदि हम निराशा के क्षणों में भी मुस्कुराना सीख लें और हार कर भी जीतने के लिए बिना धैर्य खोए फिर से कोशिश करने में खुद को समर्पित कर दें तो जीवन तनाव और चिंता से महफूज रहता है, पर दुर्भाग्यवश ये सभी बातें कहने-सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तविक जीवन में इसके लिए सागर सरीखे अगाध धैर्य और खुले आकाश सरीखे विशाल साहस की दरकार होती है।


आज जब मानव सभ्यता चांद पर अपनी कॉलोनी बसाने की तैयारी को मुकम्मल रूप देने की दहलीज पर खड़ा है तो हमारे बच्चे यदि अपने जीवन की मुसीबतों का सामना करने की बजाय हार मानकर खुद को ही समर्पित कर देता है तो फिर तेजी से विकास कर रहे साइंस और टेक्नोलॉजी पर एक प्रश्न चिह्न् खड़ा हो जाता है। आज की पीढ़ी इस मामले में भाग्यशाली है कि उसने अपने युग और समय के उस मोड़ पर जन्म लिया है जिसके पास दुनिया को मुट्ठी में कर लेने की अपार क्षमता है, किंतु अफसोस तब होता है, जब उनकी इस मुट्ठी में कैद अनमोल चीजें व्यर्थ ही जाया हो रही हैं। छात्रों और उनके अभिभावकों के लिए फरवरी और मार्च महीना कुछ अधिक तनाव भरा होता है, क्योंकि इस दौरान परीक्षा का दबाव रहता है, लेकिन यह अनावश्यक है जिससे बचा जा सकता है। 


लेखक- जवाहर नवोदय विद्यालय में प्राचार्य हैं।


Popular posts from this blog